Taurus Health 2015
- 02 December 2014
शनिदेव ने एक बार से घोर तप करके वर पा लिया कि वो जिस पर भी दॄष्टिपात कर दें वह विनाश को प्राप्त हो जाए। परन्तु शुभ दॄष्टि डालने से मनुष्य को धन-धान्य से परिपूर्ण हो | शनिदेव उंद्दड तो थे ही मनोनुकूल वर प्राप्त कर लेने के बाद शनिदेव और भी उंद्दड हो गए यहां तक वह अपने पिता की आज्ञा की भी अवेलना करने लगे।
एक बार सूर्यदेव ने अपने पुत्रों को योग्यता अनुसार एक-एक लोक का अधिपत्य प्रदान किया परन्तु शनिदेव इससे संतुष्ट नहीं हुए । वे सभी लोकों का अधिपत्य चाहते थे । शनिदेव की इस व्यवहार से संतप्त सूर्य ने भगवान शिव से प्रार्थना की । भगवान शिव ने सूर्य की प्रार्थना पर शनिदेव को सबक सिखाने के लिए अपने गणों को व नन्दी को शनिदेव से युद्ध करने भेजा परन्तु शनिदेव ने उनको परास्त कर दिया । भगवान शिव ने गणों को व नन्दी को परास्त जानकर स्वयं शनिदेव से युद्ध करने के लिए पंहुचे। दोनों में घोर संग्राम हुआ ।
शनिदेव ने भगवान शिव की ओर मारक दॄष्टि डाली तो भगवान शिव ने भी तीसरा नेत्र खोल दिया । दोंनो के तेज से एक ज्योति निकली जिसने शनिदेव व उनके सभी लोकों को आच्छादित कर दिया । तब भगवान शिव ने शनिदेव पर त्रिशुल का प्रहार किया । इस तरह भगवान शिव ने शनिदेव संज्ञाशुन्य कर दिया । परन्तु सूर्यदेव अपने पुत्र शनिदेव को संज्ञाशुन्य देख कर पुत्रमोह से ग्रस्त हो गए। वे भगवान शंकर से अपने पुत्र शनिदेव की जीवन की भीख मांगने लगे। तब महादेव ने शनिदेव को संज्ञाशुन्यता से दूर कर दिया और वे उठ बैठे।
इस घटना के बाद भगवान शिव ने शनिदेव को अपना शिष्य बना लिया और भगवान शिव ने शनिदेव को प्रंचड पराक्रमी जानकर दंडाधिकारी नियुक्त कर दिया। आज भी शनिदेव धार्मिक प्रवृति के मनुष्य की रक्षा करते हैं और अधार्मिक प्रवृति के मनुष्य को कठोर दंड देते हैं। तभी कहा गया है कि शनिदेव की महादशा में मनुष्य को धार्मिक प्रवृति को नहीं छोड़ना चाहिए ।
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