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Holi ke rang........

होली का धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व

होली हिन्दूओं का सामाजिक त्योहार होते हुये भी राष्ट्रीय त्योहार बन गया है। इनमें न तो कोई वर्ण भेद है न तो कोई जाति भेद। इसको सभी वर्ग के लोग बडे उत्साह से मनाते है। यह सम्पूर्ण अनिष्टो को समाप्त कर देता है। आपसी वैमनस्य को भूलकर लोग आपस में गले मिलते हैं। गुलाल व चन्दन लगाते है। होली को विधिवत मनाने से वैकुंठ के द्वार खुल जाते है।

भविष्य पुराण के अनुसार महर्षि नारद ने धर्मराज युधिष्ठिर को एक कथा सुनाई थी, जो इस प्रकार है - हे राजन ! फाल्गुन मास की पूर्णिमा को सब मानवों के लिये अभयदान होना चाहिये जिससे सारी प्रजा निडर होकर हंसे और खेले, कूदे। डंडे और लाठी लेकर लोग शूरो के समान गांव के बाहर जाकर होलिका के लिये लकडियों और कंडो का संचय करे। विधिवत हवन करें। खुशी, किलकिलाहट और मंत्रोच्चारण से राक्षसी नष्ट हो जाती है। इस व्रत की व्याख्या से दैत्यराज हिरण्यकिश्यपु की अनुजा होलिका जिसे अग्नि मे न जलने का वरदान था, धर्मनिष्ठ भतीजे प्रहृाद को लेकर अग्नि में बैठ गई थी और वह राक्षसी जल कर भस्म हो गई थी। तब से हर वड्ढर होलिका नाम से वह जलाई जाती है।

हे धर्मराज ! इस हवन से सम्पूर्ण अनिष्ट मिट जाते हैं। यही होलिकात्सव कहलाता है। इस होलिका दहन की तीन परिक्रमा करके फिर हासपरिहास करना चाहिये। इस फाल्गुन पूर्णिमा के दिन चतुर्दुश मनुओं में से एक मनु का जन्मदिवस भी है। इस कारण यह मन्वादि तिथि भी है। इसलिये इस उपलक्ष्य में भी इस पर्व की महत्ता है। संवत आगमन व वसंतागमन के लिये जो यज्ञ किया जाता है और उसके द्वारा अग्नि के अधिदेव स्वरूप जो पूजन होता है, उसे भी अनेक शास्त्रकारों ने होली का पूजन माना है। इसी कारण कुछ लोग होलिका दहन को संवत के आरंभ में अग्निस्वरूप परमात्मा का पूजन मानते हैं। होलिका दहन फाल्गुन मास की शुक्ल पूर्णिमा को बडी धूमधाम से मनाया जाता है। होलिका दहन का स्थान शुद्ध होना चाहिये। वहां पर घास, फूस, पुआल, उपले आदि को एकत्रित करके रखना चाहिये। संध्या समय समस्त नगरवासियों के साथ उक्त स्थान पर जाना चाहिये और पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठ जाना चाहिये। इसके बाद होलिका पूजन का संकल्प करके पूर्णिमा तिथि होने पर ही किसी के घर से बालको द्वारा अग्नि मंगवा कर होलिका दहन करना चाहिये।

यह कार्य भद्रा रहित समय में होना चाहिये वरना काफी अनिष्ट हो सकता है। भद्रा तिथि में होलिका दहन से राष्ट्र में विद्रोह और नगर में अशांति हो जाती है। इसलिये प्रतिपदा, चतुर्दशी, भद्रा और दिन में होली जलाना सर्वथा त्याज्य है। इसके बाद गेंहू, चने और जौ की बालों को होलिका की पवित्र ज्वाला में भूनना चाहिये। अगले दिन इसकी भस्म को मस्तक पर लगाकर पुण्य का भागी बनना चाहिये।

होली शुक्र शनिचरी, मंगलवारी होय । चाक चावें में दिनी, विरला जावे कोय ॥

अर्थात यदि होली शुक्रवार, शनिवार एवं मंगलवार को हो तो प्राकृतिक प्रकोप ज्यादा होगें  अतः फाल्गुन से अगले फाल्गुन तक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पडेगा।

जलै होलिका पिश्चम पोन, अन्न उपजे चारो कोन । उत्तर वायु होलिक दहै, धूंधूकार जमानो कहै ॥ पिश्चम पौन होलिका जोय, अन्न निपजे पण खडकछु होय । पूरब पौन होलिक झाल, कठैक समयो कठैक का काल ॥

अर्थात यदि होली की ज्वाला पिश्चम दिशा में हो वो चारों ओर अन्न उपजेगा। यदि उत्तर दिशा में ज्वाला हो तो अग्निकाण्ड दुर्घटनांए ज्यादा होती है। यदि पूर्व की ज्वाला हो तो कहीं खेती उत्तम होगी और कहीं आकाल पडेगा।

होली दिन वायु चले, जो पूर्व की आय । सुख सम्पत्ति आनन्द करे, रंच झूठ नहीं जाए ॥ दक्षिण पवन हिलोर के, देश भंग अरू काल । पिश्चम वायु होलिका, तृण सम्पत्ति शुभ नाल ॥ उत्तर वायु होलि को धन्य, वृद्धि सुख होय । जो धुआं आकाश में छत्र भांग ग़ खोय ॥

अर्थात यदि होली के दिन पूर्वी हवा चले तो जनता में सुखसम्पत्ति आन्नद भरपूर रहेगा। यदि होली की ज्वाला दक्षिण दिशा की हो तो छत्रभंग होगा। काल पडेगा। यदि धुआं आकाश में जाये तो निश्चय ही राजा मरेगा। छत्र भंग होगा। नवसंवत्सर का महत्व नववड्ढर का महत्व ऐतिहासिक व धार्मिक दोनो दृष्टियों से है। हमारे देश में नवसंवत्सर का आरम्भ इसी दिन से होता है। ब्रह्य पुराण के अनुसार इस दिन ने ब्रह्या ने सृष्टि की रचना आरम्भ की थी। अथर्ववेद के अनुसार सवत्सर रूप प्रजापति की अराधना का उल्लेख है। स्मृति कौस्तुम के लेखक के अनुसार इस दिन रेवती नक्षत्र के विष्कुम्भ योग के दिन के समय भगवान ने मत्स्य अवतार लिया था। यही सम्राट विक्रमादित्य के नवसंवत्सर का प्रथम दिवस है। इसी तिथि से रात्रि के अपेक्षा दिन बडा होने लगता है। ज्योतिड्ढ गणना के अनुसार यही से चैत्री पंचाग की शुरूआत होती है। इस मास की पूर्णिमा का अन्त चित्रा नक्षत्र में होने से यह चैत्र मास नवसंवत्सर का प्रतीक हैं। इस दिन प्रातःकाल ब्रह्यमुहूर्त में स्नान करके हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर संकल्प किया जाता है। फिर नई बनी चौकी या बालू की वेदी पर सफेद साफ कोरा कपडा बिछा कर उस पर हल्दी या केसर से रंगे हुये अक्षत का अष्टदल कमल बनाया जाता है। इस कमल पर सोने की प्रतिमा स्थापित करके   ब्रह्यणेनमः से ब्रह्या का आवाहन करके पुष्प, दीप, धूप, नैवेध से पूजन किया जाता है। पूजा के अंत में अपने लिये ब्रह्या से सारे साल कल्याणकारी होने की प्रार्थना की जाती है। इस दिन नए वस्त्र धारण किये जाते हैं। घर ध्वज, पताका, और तोरण से सजाए जाते है, गृहस्थों के घरों में त्रिशुल की स्थापना की जाती हैं। प्याउ की स्थापना कराई जाती है। ब्रह्यणों को यथाशक्ति भोजन कराया जाता है।

इसके बाद रामनवमी का त्यौहार पडता है, यह भारत का राष्ट्रीय पर्व है। यह मर्यादा पुरूड्ढोत्तम राम की जन्म तिथि है। अयोध्या नगरी में इसका बडा भारी मेला लगता है। दक्षिण भारत में भी यह पर्व बडी धूमधाम से मनाया जाता है। इस व्रत में मध्य वापिनी तिथि ही लेनी चाहिये। अगस्त संहिता में इस आशय का लेख मिलता है कि यदि चैत्र शुक्ल नवमी पुनर्वसु नक्षत्र से युक्त हो और मध्याहं वापिनी हो तो उसे महापुण्य वाली माननी चाहिये। अष्टमी विद्घा नवमी कभी भी नहीं मनानी चाहिये। इस तिथि को उपवास करना चाहिये और दशमी को पारण करना चाहिये। नवमी की रात्रि को जागरण करके रामायण की कथा सुननी चाहिये और दशमी की सुबह राम नाम का पूजन करना चाहियें। इसके बाद ब्राह्यणों को भोजन कराना चाहिये और गौ, भूमि, स्वर्ण, तिल, वस्त्र, अलंकार आदि अपनी सामथ्र्यानुसार दक्षिणा में देना चाहिये।

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