अक्षय तृतीया
- 13 May 2021
एक बार नारद जी विचरण करते हुये हिमालय की एक कंदरा मे जा पहुँचे , सुरम्य स्थान देख बैठते ही अखण्ड ध्यान लग गया , इस अखण्ड ध्यान से जैसा होता आया है - इन्द्र का सिंहासन डोल उठा । इन्द्र ने ध्यान भंग करने अप्सरांए भेजी, वे भी नारद जी का ध्यान भंग न कर पायीं । नारद जी के ध्यान से विरत होते ही उन्होंने अप्सराओं के गिडगिडाने पर उन्हे अभय कर दिया । गर्वोक्त नारद जी के मन मे अहंकार ने जन्म ले लिया, कि महादेव तो कामदेव को भस्म कर जीत पाये थे मैंने तो काम को बिना भस्म करे ही जीत लिया ।
पास ही कैलाश मे महादेव के दर्शन उपरांत उन्होंने महादेव के बिना पूछे उन्हे अपना गर्वपूर्ण कामदेव जीतने का क़िस्सा भी बता दिया । महादेव ने हंस कर कहा , मुझे तो बता दिया परंतु यह वृतान्त भूल कर भी विष्णु जी को न बता देना । नारद जी ने मन ही मन सोचा महादेव मेरे इस काम विजय से ईर्ष्यालु हो उठे हैं, अब तो उन्हे विष्णु भगवान को यह काम विजय का वृतांत बताना अवश्यंवभावी हो गया । विष्णु भगवान के दर्शन उपरांत उन्होंने अपने स्वयं के द्वारा माया को भी जीत लिया कह, काम विजय का क़िस्सा जिसे बताने के लिये महादेव ने मना भी किया था बता ही दिया । विष्णु भगवान ने सोचा, यह तो ' स्थान का महत्तम ' है, इस हिमालय कंदरा मे तो महादेव ने बैठ कर तप किया था , अब इसे नारद जी को कैसे समझाया जाए । विष्णु भगवान ने आश्चर्य दिखा इस अद्भुत कार्य की सराहना करी । नारद जी के भ्रमनाश हेतु विष्णु भगवान ने श्रीमती पुरी नाम की एक नगरी खड़ी कर विश्वमोहिनी ( लक्ष्मी ) स्वंयवर रचा, एवं इस स्वंयवर मे नारद जी से विश्वमोहिनी का विवाह न करा विष्णु भगवान ने स्वयं ही विश्वमोहिनी से विवाह कर लिया ।
यह सब देख नारद जी ने , काम को तो जीत ही लिया था अतएव क्रोधवश अत्यन्त क्रोधित हो उन्होंने विष्णु भगवान को अपशब्द कह स्त्री वियोग मे विक्षिप्तता का शाप दे दिया । तब विष्णु भगवान ने अपनी रची हुयी माया दूर करी , विश्वमोहिनी लुप्त हो गयीं । माया दूर होते ही नारद जी की बुद्धि शांत हुयी , बीती बातें याद कर नारद जी भयभीत हो विष्णु भगवान के चरणों मे गिर प्रार्थना करने लगे । हे नारायण - मेरा दिया शाप मिथ्या हो और अब मेरे पापों का प्रायश्चित कैसे हो
' मैं दुर्वचन कहे बहुतेरे , कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे '
यह उपाय पूछा , तब विष्णु भगवान ने कहा - महादेव मुझे सर्वाधिक प्रिय हैं , वे जिस पर कृपा नही करते उसे मेरी भक्ति नही प्राप्त होती ।
' जपहु जाइ संकर सतनामा , होइहि हृदय तुरंत विश्रामा । कोउ नहि सिव समान प्रिय मोरे , असि परतीति तजहु जनि भोरें ।। '
अत: आप जा कर शिवशतनाम का जप कीजिये इससे आप के सब पाप दोष मिटेंगे और पूर्ण ज्ञान , वैराग्य , भक्ति सदा के लिये आप के हृदय मे स्थित हो जायेगी ।
धवलवपुषमिन्दोर्मण्डले संनिविष्टं भुजगवलयहारं भस्मदिग्धांगमीशम् । हरिणपरशुपाणिं चारुचन्द्रार्धमौलि हृदयकमलमध्ये संततं चिन्तयामि ।।
चन्द्रमण्डल मे विराजमान महादेव का ग़ौर शरीर, सर्प का कंगन व सर्प का ही हार पहने हुये हैं । भस्म लगाये हुये महादेव के हाथों मे मृगी-मुद्रा एवं परशु है । अर्धचन्द्र मस्तक पर विराजित एैसे महादेव का मैं हृदय से अहर्निष चिन्तन करता हूँ ।
शिवो महेश्वर: शम्भु: पिनाकी शशिशेखर: । वामदवो विरूपाक्ष: कपर्दी नीललोहित: ।। शंकर: शूलपाणिश्च खटवांगी विष्णुवल्लभ: । शिपिविष्टोऽम्बिकानाथ: श्रीकण्ठो भक्तवतसल: ।। भव: शर्वस्त्रिलोकेश: शितिकण्ठ: शिवाप्रिय: । उग्र: कपालि: कामारिरन्धकासुरसूदन: ।। गंगाधरो ललाटाक्ष: कलाकाल: कृपानिधि: । भीम: परशुरस्तश्च मृगपाणिर्जटाधर: ।। कैलासवासी कवची कठोरस्त्रिपुरान्तक: । वृषांको वृषभारूढो भस्मोद्धूलितविग्रह: ।। सामप्रिय: स्वरमयस्त्रयीमूर्तिरनीश्वर: । सर्वज्ञ: परमात्मा च सोमसूर्याग्निलोचन: ।। हविर्यज्ञमय: सोम: पंन्चवक्त्र: सदाशिव: । विश्वेश्वरो वीरभद्रो गणनाथ: प्रजापति: ।। हिरण्यरेता दुर्घर्षो गिरिशो गिरिशोऽनघ: । भुजंगभूषणो भर्गो गिरिधन्वा गिरिप्रिय: ।। कृत्तिवासा पुरारिर्भगवान् प्रमथाधिप: । मृत्युन्जय: सूक्ष्मतनुर्जगदव्यापी जगदगुरु: ।। व्योमकेशे महासेनजनकश्चारुविक्रम: । रुद्रो भूतपति: स्थाणुरहिर्बुधन्यो दिगम्बर ।। अष्टमूर्तिरनेकात्मा सात्त्विक: शुद्धविग्रह: । शाश्वत: खण्डपरशुरजपाशविमोचक: ।। मृड: पशुपतिर्देवो महादेवोऽव्यय: प्रभु: । पूषदन्तभिदव्यग्रो दक्षाध्वरहरो हर: ।। भगनेत्रभिदव्यक्त: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात् । अपवर्गप्रदोऽनन्तस्तारक: परमेश्वर: ।। एतदष्टोत्तरशतनाम्नामाम्नायेन सम्मितम् । विष्णुना कथितं पूर्वं पार्वत्या इष्टसिद्धये ।।
भगवान शंकर के इन शत ( १०८ ) नाम जो वेदतुल्य हैं , श्री विष्णु ने पहले इसे इष्ट सिद्धि के लिये माता पार्वती को बतलाये थे । इन शतनामों में से केवल एक नाम भी मोक्ष देने वाला है , संपूर्ण शतनाम का महत्व वर्णनातीत है ।
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।। महादेव ।।