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Shri Sukta (श्री सूक्त)

shri sukta श्री महालक्ष्मी का आसान कमल है, इसलिए माता को कमलासना भी कहा जाता है | समुद्र मंथन में माता लक्ष्मी का अवतरण हुआ और श्री विष्णु ने उनको अपने वामांग में स्थान दिया | माता लक्ष्मी अपने पति भगवान विष्णु की  निरंतर सेवा करती हैं और माता के प्राण श्रीयंत्र में बसते हैं | अतः जिन के घर प्रतिष्ठित श्रीयन्त्र स्थापित हो और और वह नियमित श्रीसूक्त का पाठ करता है उन पर लक्ष्मी कृपा होने से कोई रोक ही नहीं सकता | नीचे दिया गया श्रीसूक्त परम कल्याणकारी है उच्चारण में परेशानी न हो इसलिए अनुराधा पौडवाल जी का यू ट्यूब का लिंक भी है |

श्रीसूक्त

ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम्। चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।। १ ।।

तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम्। यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।। २ ।।

अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रमोदिनीम्। श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।। ३ ।।

कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं। पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।। ४ ।।

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्। तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि।। ५ ।।

आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः। तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।। ६ ।।

उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह। प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे।। ७ ।।

क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम्। अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात्।। ८ ।।

गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम्।। ९ ।।

मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि। पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।। १० ।।

कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भ्रम-कर्दम। श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम्।। ११ ।।

आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे। निच-देवी मातरं श्रियं वासय मे कुले।। १२ ।।

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम्। सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।। १३ ।।

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम्। चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।। १४ ।।

तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्। यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम्।। १५ ।।

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा, जुहुयादाज्यमन्वहम्। श्रियः पंच-दशर्चं च, श्री-कामः सततं जपेत्।। १६ ।।

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